मान्यता है कि मृतक की आत्मा बारह दिनों का सफर तय कर विभिन्न योनियों को पार करती हुई अपने गंतव्य (प्रभुधाम) तक पहुंचती है। इसीलिए 13वीं करने का विधान बना है। परंतु कहीं-कहीं समयाभाव व अन्य कारणों से 13वीं तीसरे या 12वें दिन भी की जाती है।

तेरहवीं का श्राद्ध 13वें दिन ही करना चाहिए । लोकव्यवहार में यही श्राद्ध वर्णों के हिसाब से अलग अलग दिनों को किया जाता है। लेकिन गरुड़ पुराण के अनुसार तेरहवीं तेरहवें दिन ही करना चाहिए, इन 13 दिनों में अपने अथवा परिजनों, सगे – संबंधियों के घर मे कोई भी शुभ कार्य होना अत्यंत ही वर्जित माना गया है।

तेरहवीं से पहले दशगात्र: 10 पिंडदान अवश्य करने चाहिए। इन्हीं पिंडों से अलग अलग अंग बनते हैं। वैसे तो दस दिनों तक प्रतिदिन एक एक पिंड रखने का विधान है, लेकिन समयाभाव की स्थिति में 10 वें दिन ही 10 पिंडदान करने की शास्त्राज्ञा है। शालिग्राम, दीप, सूर्य और तीर्थ को नमस्कारपूर्वक संकल्पसहित पिंडदान किया जाता है। संख्या के अनुसार पिंड पिंड से बनने वाले अवयव प्रथम सिर, द्वितीय कर्ण, नेत्र, मुख, नासिका ,तृतीय गीवा, स्कंध, भुजा, वक्ष चतुर्थ नाभि, लिंग, योनि, गुदा पंचम जानु, जंघा, पैर षष्ठ सर्व मर्म स्थान, पाद, उंगली सप्तम सर्व नाड़ियां अष्टम दंत, रोम नवम वीर्य, रज एवं दशम सम्पूर्ण अवयव, क्षुधा, तृष्णा का निर्माण होता है। पिंडों के ऊपर जल, चंदन, सूत्र, जौ, तिल, शंख आदि से पूजन कर संकल्प सहित श्राद्ध को पूर्ण किया जाता है (संकल्प: कागवास, गौग्रास, श्वान व पिपिलिका)।

तथ्य, कारण व प्रभाव: इस श्राद्ध से मृतात्मा को नूतन देह प्राप्त होती है और वह असद्गति से सद्गति की यात्रा पर आरूढ़ हो जाती है

तर्पण की महिमा: श्राद्ध में जब तक सभी पूर्वजों का तर्पण न हो तब तक प्रेतात्मा की सद्गति नहीं होती है। जो पितृ जिस रूप में जहाँ जहाँ विचरण करते हैं वहां वहां काल की प्रेरणा से उन्हें उन्हीं के अनुरूप भोग सामग्री प्राप्त हो जाती है।

तेरहवीं का श्राद्ध: द्वादशाह का श्राद्ध करने से प्रेत को पितृयोनि प्राप्त होती है। लेकिन त्रयोदशाह का श्राद्ध करने से पूर्वकृत श्राद्धों की सभी त्रुटियों का निवारण हो जाता है और सभी क्रियाएं पूर्णता को प्राप्त होकर भगवान नारायण को प्राप्त होती है। तेरहवें का श्राद्ध अति आवश्यक है

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